चुनाव आयोग की किसको है परवाह?

चुनाव आयोग पर देश में चुनाव करवाने की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है लेकिन 2019 आम चुनाव के पहले आदर्श आचार संहिता के इतने कथित उल्लंघन हुए हैं कि सवाल पूछे जा रहे हैं कि आखिर आयोग कहां है और क्या उसका हाल किसी ऐसी अप्रभावी संस्था या बिना दांत के शेर जैसा तो नहीं है जिसकी किसी को परवाह नहीं?
वकील प्रशांत भूषण ने ट्वीट कर पूछा है- "चुनाव आयोग (नरेंद्र) मोदी पर (कथित) प्रोपोगैंडा मूवी की इजाज़त देता है, उन्हें दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो पर एंटी सैटेलाइट मिसाइल पर चुनावी भाषण देने की इजाज़त देता है, उन्हें रेलवे के दुरुपयोग की इजाज़त देता है लेकिन रफ़ाल पर किताब पर पाबंदी लगा दी जाती है और उसकी कॉपीज़ को अपने कब्ज़े में ले लिया जाता है."
कहानियां कई हैं इसलिए एक-एक कर उनकी बात करते हैं. ऐसे वक़्त जब आदर्श आचार संहिता लागू है, नरेंद्र मोदी का महिमामंडन करने वाली एक फिल्म रिलीज़ के लिए तैयार है.
31 मार्च को भाजपा की ओर से "प्रोपोगैंडा टीवी चैनल" नमो टीवी लांच किया गया लेकिन चैनल की कानूनी स्थिति, इसके लाइसेंस पर गंभीर सवाल हैं. केबल ऑपरेटर टाटा स्काई ने कहा आप इस चैनल को अपने चुने हुए चैनलों के ग्रुप से डिलीट भी नहीं कर सकते.
पाकिस्तान में पकड़े गए भारतीय जवान अभिनंदन की तस्वीरों का इस्तेमाल राजनीति के लिए किया गया.
राजस्थान के राज्यपाल की कुर्सी पर बैठने वाले कल्याण सिंह ने किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़े कार्यकर्ता की भाषा बोलते हुए कहा, "हम सब चाहेंगे कि मोदी जी ही प्रधानमंत्री बनें."
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक भाषण में 'मोदी जी की सेना' जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया.
उदाहरण कई हैं लेकिन चुनाव आयोग ने क्या किया- नोटिस जारी किए, चिट्ठियां लिखीं. रिपोर्टों के मुताबिक चुनाव आयोग ने कल्याण सिंह को आचार संहिता भंग करने का दोषी माना और राष्ट्रपति कोविंद की चिट्ठी लिखी.
आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन पर आयोग उम्मीदवार से अप्रसन्नता व्यक्त कर सकता है, उसकी निंदा (सेंशर) कर सकता है, और अगर मामला आपराधिक हो तो उचित अधिकारी से एफ़आईआर दर्ज करने को कह सकता है.
लेकिन आज के राजनीतिक माहौल में जब चुनावी जीत के लिए कुछ भी करना कई जगह जायज़ बताया या माना जाता है, चुनाव आयुक्त के अप्रसन्नता जताने और निंदा करने से किसी को क्या फर्क पड़ता है?
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालास्वामी के मुताबिक, "ये निर्भर करता है कि आपमें कितनी शर्म है."
बीबीसी से बातचीत में कुछ चुनाव आयुक्तों का कहना था कि आयोग के अप्रसन्नता जताने और निंदा करने से स्थानीय मीडिया मुद्दे को कवर करता है जिसका असर उम्मीदवार के वोटरों पर पड़ता है, और कोई भी उम्मीदवार नहीं चाहेगा कि उसके वोटर उससे दूर हों.
पूछने पर पता चला कि चुनाव आयोग के कदमों का कितना असर उम्मीदवार या पार्टी के वोटरों पर पड़ता है, इस पर कभी कोई रिसर्च नहीं हुई.
रिसर्च इंस्टिट्यूट सीएसडीएस के संजय कुमार के मुताबिक चुनाव आयोग के कदमों से उम्मीदवारों को कोई फर्क नहीं पड़ता.
भारतीय जनता पार्टी के साक्षी महाराज के मुताबिक "निर्वाचन आयोग जो कुछ करता है अच्छा ही करता है," लेकिन "वोट पर तो कोई असर नहीं पड़ता."
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक साल 2017 में मेरठ में दिए एक भाषण में साक्षी महाराज ने कहा था जनसंख्या के लिए "हिंदू ज़िम्मेदार नहीं हैं. जिम्मेदार तो वो हैं जो चार बीवी और 40 बच्चों की बातें करते हैं."
चुनाव आयोग ने उनके इस बयान पर उनकी आलोचना की थी. लेकिन पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस संपत मानते हैं कि आयोग चाहे तो मज़बूत तरीके से कदम उठा सकता है. उनके कार्यकाल में ही साल 2014 के आम चुनाव संपन्न हुए थे.
ये उनका कार्यकाल ही था जब 2014 में भाजपा नेता अमित शाह और समाजवादी पार्टी नेता आज़म खान के विवादास्पद भाषणों के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश में रैली, रोड शो या आम सभा करने से प्रतिबंधित कर दिया गया था. उस वक्त अमित शाह उत्तर प्रदेश में पार्टी के इंचार्ज भी थे.
अमित शाह ने शामली और बिजनौर में कथित तौर पर सांप्रदायिकता भड़काने वाले भाषण दिए थे जबकि आज़म खान ने कहा था कि कारगिल लड़ाई मुसलमान सैनिकों ने जीती न कि हिंदू सैनिकों ने.
उस वक्त की एक पीटीआई रिपोर्ट के मुताबिक चुनाव आयुक्त ने अधिकारियों से दोनो नेताओं के खिलाफ़ एफआईआर दर्ज करने को भी कहा था.
संपत बताते हैं कि अमित शाह ने चुनाव आयोग को दिए अपने हलफ़नामें में माफ़ी मांगी जिसके आधार पर उन्हें दोबारा मौका दिया गया जबकि आज़म खान पूरे चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में कोई सभा नहीं कर सके.
संपत कहते हैं, "चुनाव के दौरान एक राजनीतिज्ञ के लिए जनसभा करना बेहद महत्वपूर्ण होता है... हमने आर्टिकल 324 में दिए गए अधिकारों का इस्तेमाल किया और ये कदम उठाया... ऐसा नहीं है कि चुनाव आयोग असहाय है. अगर आप चाहें तो आप कार्रवाई कर सकते हैं."
वो कहते हैं, "ज़रूरी नहीं कि हर कोई (पूर्व चुनाव आयुक्त टीएन सेशन) सेशन बन जाए. बिना सेशन बने भी आप कार्रवाई कर सकते हैं."
याद रहे कि उसी दौरान उस वक्त के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करने के आरोप में एफआईआर दर्ज की गई थी.
नरेंद्र मोदी पर आरोप था कि मत डालने के बाद उन्होंने मतदान केंद्र से बाहर आकर भाजपा का चुनाव चिह्न कमल दिखाया और प्रेस कान्फ्रेंस की जिससे जनप्रतिनिधित्व कानून की धाराओं का उल्लंघन हुआ.
अपनी प्रतिक्रिया में नरेंद्र मोदी ने कहा था, "मेरी पूरी उमर में मेरे पर आज तक एक भी एफ़आईआर नहीं हुई है. रॉंग साइड स्कूटर चलाने का भी कभी केस नहीं हुआ है.... और आज अचानक 30 अप्रेल मैं ज़िंदगी में कभी भूलूंगा नहीं."
बाद में गुजरात क्राइम ब्रांच ने नरेंद्र मोदी को 'क्लीन चिट' दे दी थी और हाई कोर्ट ने इस 'क्लीन चिट' को बरकरार रखा था.

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